आओ हिन्दी की बात करें, आओ हिन्दी में बात करें।
कुछ गपशप, कुछ गुफ़्तगु, कुछ बकर-बकर,
आपस में, परस्पर, एक दूसरे के साथ करें।
आओ हिन्दी की बात करें, आओ हिन्दी में बात करें।
क्या है? कैसी है? कौन सी है हिन्दी?
इसके विभिन्न, मुख्तलिफ़, बहुरूपीये,
रूप रंगों से, चेहरों से ही शुरुआत करें?
आओ हिन्दी की बात करें, आओ हिन्दी में बात करें।
हिमाद्रि तुंग शृंग सी प्रबुद्ध शुद्ध तत्सम पुकार,
सखी वो मुझसे कहकर जाते की तद्भव गुहार,
मैय्या मोरी मैं नहीं माखन खायो का देशज दुलार,
इश्क़ पर ज़ोर नहीं का विदेशी प्यार,
कहीं हुआ हो उद्गम, सब हिन्दी है मेरे यार!
जिनकी भाषा हिन्दी-प्रमाण, जिन्हें राष्ट्रकवि हम कहते हैं,
उनकी कविता में भगवद् मुख से, ये सभी शब्द तो बहते हैं।
"बाँधने मुझे तो आया है, जंजीर बड़ी क्या लाया है?
यदि मुझे बाँधना चाहे मन, पहले तो बाँध अनन्त गगन।
सूने को साध न सकता है, वह मुझे बाँध कब सकता है?"
इन शब्दों में कितनो के बता, स्रोत साध तू सकता है?
हमने जो हिन्दी सीखी, सुनी, बोली, पढ़ी,
थी वो, है वो, मिश्रित, टेढ़ी मेढ़ी।
सुन्दर अनुपम, पर सममित नहीं,
थी वो, है वो, कई रूपों में गढ़ी।
वो नहीं संकीर्ण, न सीमित स्थिर,
संगम सबसे कर चली, बढ़ी।
किसे कहें अपभ्रंश, किसे विशुद्ध,
बोलियाँ भिन्न हैं, ज़रूर, न विरुद्ध!
फिर इन आलतू फालतू बातों से,
क्यों करें हम हिन्दी को अवरुद्ध?
लोहपथगामिनी को हिन्दी माने या रेलगाड़ी को,
या जो हर हिन्दी भाषी असल में बोले, उस ट्रेन को?
की फरक पैंदा है ब्रो!
पानीपूरी, पानी-पताशे, पुचका, गुपचुप, गोलगप्पे,
जो कहना है कहो!
मतलब तो स्वाद से है, नाम कुछ भी हो!
ज़िहाल-ए-मिस्कीं मकुन ब-रंजिश उर्दू को
वही धड़कन सुनाई देगी, तुम्हारा दिल हो या हमारा दिल हो!
बचपन में दिल्ली में "मेरेको" बिस्कुट खाने का चस्का था,
बिहार में गाँवकी गाछी में आम "मैं" नहीं, "हम" खाया करते थे।
मुंबई लोकल की भीड़ में वाट "अपुन" की लगती थी,
इस अनेकता में एकता देख, "ख़ुद" तो पा जाया करते थे।
यादों को छोड़ चलिए बात करें कुछ आज की,
हिन्दी के बारे में सबके मौजूदा मिज़ाज की।
कोई जुड़ना चाहे संस्कारों से, शुध्द भाषा का करे उपयोग,
कोई सांसारिक, ग्लोबल, अंग्रेजी शब्दों का करे प्रयोग।
कुछ राष्ट्रभाषा / राजभाषा के विवादों में हैं पड़े हुए,
कुछ हिन्दी / हिंदुस्तानी/ उर्दू में करते रहें वियोग।
पर कुछ के शोर में क्यों करें वक़्त बर्बाद?
छोटे मोठे अंतरों को क्यों दें इतना भाव,
जन साधारण में कहाँ है कुछ विवाद?
हिन्दी तो है प्रेम की, प्यार की भाषा,
मेल मिलाप की, दोस्त,यार की भाषा।
न मेरी-तेरी, ये हम सबकी, सबको मिलाने वाली,
गली मोहल्ले, बाज़ार चौपाल की, घर बार की भाषा।
जो जोड़े लोगों को, आपस में बढ़ाये प्रेम विशेष,
हिन्दी में उन सब शब्दों का निश्चित होता समावेश।
जानना हो अगर हिन्दी क्या है, कैसी है,
तो पहले पूछिए हिन्दी कौन है, किसके जैसी है?
पाएंगे कि आप और हम ही हैं हिन्दी!
यत् ब्रम्होच्चारित तत् वेद, यथा तथा,
जो तू और मैं, आप और हम बोलें वही हिन्दी भाषा।।
10 comments:
Wow. Really wonderful blog so beautifully penned.अभिनन्दन आभार
Wah
वाह! वाह!! एकदम गर्दा
अती उत्तम।
Bahut badiya...
अतिउत्तम प्रयाश
यथार्थ की अभिव्यक्ति अभिराम, सुन्दर कविता गढ़ने की शुरुआत वंदनीय ।
हिंदी भाषा के प्रति आपका प्यार,
अनन्त गहराई समेटी आपके विचार
हिंदी का विस्तृत स्वरूप,
अपभ्रंश हो या मिश्रित रूप
सात समुंदर पार से
यादों के बाजार से
दिल में हिन्द महान लिए
हिंदी का सम्मान लिए
लंदन से कविवर आया
पूरा हिंदुस्तान लिये
नमन कलम को शब्द-सार को
देश की माटी के श्रृंगार को
दूर गया पर दूर नहीं है
यही सिखाती संस्कार को
हिंदी भाषा के प्रति आपका प्यार,
अनन्त गहराई समेटे आपके विचार
हिंदी का विस्तृत स्वरूप,
अपभ्रंश हो या मिश्रित रूप
सात समुंदर पार से
यादों के बाजार से
दिल में हिन्द महान लिए
हिंदी का सम्मान लिए
लंदन से कविवर आया
पूरा हिंदुस्तान लिये
नमन कलम के शब्द-सार को
देश की माटी के श्रृंगार को
दूर गया पर दूर नहीं है
यही सिखाती संस्कार को
सादर
ज्ञानेंद्र भास्कर
Ek number
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